Saturday, 4 November 2017

अपनी बात

        दो -तीन दिन पहले की बात है। सुबह जिम से निकली तो ख्याल आया कि मायके जा आती हूँ , थोड़ी दूर ही तो है आधे रास्ते तो आ चुकी हूँ । वैसे मैं रोज शाम को ही जाती हूँ। लेकिन उस दिन सुबह जाने की एक वजह थी कि अरयास की शादी नजदीक है और माँ के सूट दर्जी को देने हैं और दुप्पटे भी पिको करवाने हैं। और एक बार घर चली गई तो फिर से मायके की डगर कठिन हो जाएगी। और फिर , बाजार भी मायके की विपरीत दिशा में है।
        डोर बेल बजा कर चुप खड़ी रही कि माँ तो धीरे-धीरे चल कर ही  दरवाजा खोलेगी। वैसे एक बात तो जरूर है कि बुजुर्गों का साथ हमें सब्र करना तो सिखाता है। और मेरे साथ तो चार बुजुर्गों का साथ है।
         माँ ने दरवाज़ा खोला तो सुखद आश्चर्य से हंस पड़े। पापा भी खुश हुए। अदरक वाली चाय की खुशबु आ रही थी। मन तो था कि चाय पीयूं , पर ऐसे तो आधा घंटा लग जाना था। घर पर भी चिंता हो जानी थी।  बिन बताये जो आई थी। माँ ने चाय के लिए कहा भी लेकिन देर हो जाने की वजह से नहीं पी।
             सारा सामान ले कर चली तो एक बुजुर्ग व्यक्ति को देखा। उन्होंने  लगभग तीन  लीटर दूध आये , ऐसी दो डोलची हाथ में ले रखी थी। उम्र लगभग सत्तर के करीब थी। मेरा मन करुणा और वितृष्णा से एक साथ भर आया। उनको मैंने एक दिन पहले भी देखा था , शाम को मायके से आते हुए। सड़क के एक तरफ खड़े हो कर , कागज के टुकड़े पर रख कुछ खाते हुए। देख कर मन खट्टा हो गया। क्या उनको घर पर पेट भर खाने को नहीं देते है  या समय पर नहीं देते ? भूख तो लगती ही है। और उस दिन उनको डोलची लिए देखा तो मन बहुत खराब हुआ।
        चलती जा रही थी और सोचती भी। क्या सच में बुजुर्गों की कदर नहीं है। मैंने तो अपने जीवन में ऐसा नहीं देखा। मुझे याद है एक बार पिता जी बाजार की तरफ घूमने गए तो आते हुए ब्रेड ले आये थे तो संजय जी ने सख्ती से मना कर दिया कि  जिसको खाना होगा वह खुद ले आएगा , उनको कुछ भी लाने जरूरत नहीं है।
         अब घर सामने था। विचारों को विराम दिया और दिनचर्या में लग गई। 

Tuesday, 2 May 2017

माँ तो माँ है ..

     एक दिन छोटी सी बात हो गई। कई बार कुछ छोटी बातें दैनिक जीवन में छोटी बातें  गहरा असर करती  है और याद भी रह जाती है। तो उस दिन यह हुआ कि मैं रसोई के काम से थोड़ी सी फुरसत पाते ही बैठक की तरफ गई। वहां अंशुमान अख़बार में , प्रध्युम्न मोबाईल में और संजय जी फोन पर किसी से बात करने  मशगूल थे।
           मेरे दोनों बेटों में एक बात कॉमन यह हो रही  थी कि दोनों पैर हिलाये जा रहे थे और अपने अख़बार , मोबाईल  व्यस्त थे। मुझे पैर हिलाने से सख्त चिढ है। मैंने डाँटते हुए उन दोनों को पैर हिलाने से मना किया।
       दोनों ने चौंक कर मेरी और देखा। लेकिन संजय जी आदतन चुप नहीं रह सके। बोले, " लो भाई , रसोई की गर्मी अब यहाँ भी आ गई ! रामू नहीं है तो हम क्या करें ? और ये पैर हिलाने से क्या हो जायेगा ! "
  मैंने कहा , " कहते हैं कि पैर हिलाने से माँ मर जाती है ! "
" हैं ! ये क्या अन्धविश्वास की बातें बच्चों को सिखा रही हो , लो , अब मैं भी पैर हिलाता हूँ ! " यह कह कर संजय जी भी पैर हिलाने लगे।
         मैंने कहा , " संजय जी ! आप पैर हिलाइये , कोई मनाही नहीं और कोई फ़िक्र नहीं। "
   संजय जी बोले , " क्यों ? "
मैंने कहा, " क्यूंकि बात तो मेरे बच्चों की माँ की है यानि मेरी ! आपकी माँ की किसे परवाह है ! "
यह सुनते ही उनके पैर जस के तस वहीँ रुक गए क्या , मानो थम या जम से गए। मैंने कहा कि अब क्या हुआ। संजय जी चौंकते हुए बोले कि सच में अब तो पैर हिल ही नहीं रहे।
 मैंने हर्ट होते हुए कहा कि आपने क्या सोचा था ? 
          हंसी के दौर में एक बात उभर कर आई कि माँ तो माँ है , यहाँ सिर्फ विश्वास है , अन्धविश्वास नहीं।
               

Monday, 16 January 2017

बातों -बातों में

    कुछ दिन पहले मैं छोटे बेटे के साथ मायके ( स्थानीय ) चली तो रास्ते में एक स्कूटी खड़ी थी। जाहिर है कार तो रुकनी ही थी। बेटे के हॉर्न बजाने पर एक लड़की निकली। अच्छी भली लड़की थी। आज के ज़माने के हिसाब से ही सजी हुयी थी। कुछ भी ऐसा नहीं था की बुरा लगे। मुझे तो वैसे भी बेटियां प्यारी ही लगती है। लेकिन बेटे का जो एक्शन था वह मुझे अच्छा नहीं लगा। उसने उसे देखते ही गले से हो -हो ( धीरे से ही ) करके हिकारत भरी ध्वनि निकाली।
      मैंने कहा, " क्या हुआ ?
     " उसको देखा आपने ?
     " अच्छी  भली तो है ? "
   " अच्छी कहाँ थी , कितनी चित्रकारी कर रखी मुहँ पर ! "
" तो क्या हुआ ? यह उसकी अपनी रूचि है। उसको ऐसे तैयार होना अच्छा लगता होगा। हम कौन होते हैं उसे ऐसे जज करने वाले ! और जरा सोचो, यहाँ अगर उसकी जगह तुम्हारी कोई बहन होती या अगर मैं ही होती तो क्या तुम ऐसे ही ' हो-हो ' करते ? "
   वह कार रोक कर  बोला, " मेरी मां ऐसे तैयार होती ही नहीं और अगर होगी तो मैं होने नहीं दूंगा ! "
  उसने वाक्य तो लाड़ से शुरू किया था पर खत्म एक अधिकार की तरह किया। जब तक मायके पहुंची उसे मैंने समझाया कि किसी भी लड़की के बारे में बात करने से पहले अपनी बहन को सामने रख कर सोचना। उसने  मेरे इन उपदेशात्मक बातों से शर्मिंदा  होते / चिढ़ते  कार की स्पीड बढ़ा कर मुझे डरा दिया। लेकिन उसके इस रवैये ने मुझे सोचने पर मुझे सोचने पर मज़बूर कर दिया कि उसकी यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी क्या ?
       जो भी हो मुझे लगता है कि जैसे हम बेटियों को बात-बात पर  टोकते हैं , सिखाते हैं कि  अगले घर जाना है। एक बहू और पत्नी बनना है , वैसे ही लड़कों को हमें सिखाना / टोकना ही चाहिए। जिस से उसमें नारी के प्रति सम्मान बने और एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो।
     

Saturday, 7 January 2017

प्रेम की डोर

         हम सब एक दूसरे से कैसे बंधे होते हैं ? कौन है जो मन से मन की पुकार को सुना देता है ? ऐसा क्या होता है कि कोई किसी को याद करे और दूसरा भी उसकी याद में तड़फ उठता है।
       अक्सर जब भी मैं माँ को फोन करने को फोन उठाती तो तभी  माँ का फोन आ जाता। मैं भी  हंस कर कहती कि अभी आपसे बात करने के लिए फोन उठाया ही था कि आपका फोन आ गया। यह तो माँ और बेटी के प्रेम की डोर है जो गर्भनाल से सिंचित है। प्रेम जो भौतिक नहीं हो , दैहिक नहीं हो वही प्रेम अलौकिक है।
       प्रेम है तो बस है। यह कभी एक तरफ़ा भी तो नहीं होता,  प्रेम कभी बंधन में कब बंधा है। छोड़ दीजिये उसे बंधन मुक्त करके !अगर सच में प्रेम है या उसका अस्तित्व है तो वह जरूर मन की पुकार सुनेगा। अन्यथा सायों के पीछे भागना व्यर्थ है।
        मंदिर में बजती घण्टियाँ मुझे खींचती है। और मैं अपने ईष्ट के प्रेम की डोर से बंधी चल पड़ती हूँ। मन में प्रेम की भावना ही हमें ईश्वर से जोड़ती है। राह चलते हुए अगर चींटी पर पैर पड़ते हुए अगर आपका कदम रुक जाता है तो यह प्रेम है। ईश्वर की मूर्ति के लिए फूल तोड़ने के हाथ बढ़ें हो और रुक जाये , मन में एक हूक सी उठे कि नहीं, फूल तो डाली पर ही सुन्दर लगता है , तो यह प्रेम है। प्रेम दुनिया की सबसे सुन्दर और कोमल अहसास है।
   
ॐ शांति।